Sunday, May 23, 2021

महाकवि कालिदास द्वारा रचा गया महाकाव्य अभिज्ञानशाकुन्तल - हिंदी में- परिचय

 महाकवि कालिदास द्वारा रचा गया महाकाव्य अभिज्ञानशाकुन्तल - हिंदी में  - Introduction..

 

अब जब एक बार फिर सब बंद है और घर में ही रहना है तो सोचा कुछ पढ़ा जाए, और इस अवसर को सार्थक किया जाए कुछ अच्छा पढ़ा जाए, तो मन में संस्कृत के महाकवि कालिदास के अमर ग्रंथो को हिंदी में पढ़ने का विचार आया, और सोचा शुरुआत अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ से की जाएl

अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ हिंदी में नेट पर कही मिली नहीं . फिर इसी विचार से प्रेरित हो सबसे पहले मैंने उनकी अमंर रचना 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌' संस्कृत में पढ़ी - और फिर अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ का संस्कृत से कुछ भाग का हिंदी में अनुवाद किया और कुछ दोस्तों को पढ़वाया तो उन्हे वो पसंद आया .

फिर मन में एक और विचार आया अभिज्ञानशाकुन्तल महाकाव्य का हिंदी में अनुवाद क्यों न नेट पर पाठको को उपलब्ध करवाया जाय .

यही आप सहमत हो तो महाकवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ महाकाव्य का हिंदी अनुवाद इस फोरम पर पोस्ट किया जाए .. ताकि हिंदी प्रेमी जो संस्कृत नहीं जानते हैं महाकवि के इस महाकाव्य का आनंद ले सके,

समय लगेगा और गलतिया भी अवश्य होंगी क्योंकि कालिदास के बारे में संस्कृत में एक श्लोक है

" पुरा कवीनां गणना प्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः ।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिका सार्थवती बभूव ॥ "

अनुवाद - प्राचीन - काल में कवियों की गणना ( हाथ पर ) के प्रसंग में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण कालिदास का नाम कनिष्ठिका.. ( सबसे छोटे ऊँगली ) पर आया , किन्तु आज तक उनके समकक्ष कवि के अभाव के कारण , अनामिका पर किसी का नाम न आ सका और इस प्रकार अनामिका का नाम सार्थक हुआ ।








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महाकवि कालिदास जो कवि कुल गुरु माने जाते हैं की कमनीय कलेवरा कोमल कविता कामिनी का हिंदी के पाठको से परिचय होना ही चाहिए (ख़ास तौर पर वे जो हिंदी नहीं जानते ) ये मेरा विचार है ,

जिन्होने भी कालिदास का साहित्य पढ़ा है या साहित्य का कोई अनुवाद किसी भी भाषामे पढ़ा है या फिर उनके बारे में सुना है उन्हें विश्वास दिलाता हूँ मूलरचना से कोई छेड़ छाड़ नहीं होगी क्योंकि महाकवि कालिदास मेरे प्रिय कवि हैं और जिन्होने नहीं पढ़ा है उन्हें तो बहुत आनंद आने ही वाला है .

आपके विचार, सहमति या असहमति आमंत्रित करता हूँ

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महाकवि कालिदास

कृत

नाटक

'अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌'

का

हिंदी

अनुवाद

'अभिज्ञान शाकुन्तला'


नाटक
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महाकवि कालिदास कृत नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ का हिंदी अनुवाद अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक  Part 02

प्रस्तावना

कोरोना के कारण लॉक डाउन लगा, एक बार फिर सब बंद है, और घर में ही रहना है, तो सोचा समय का उपयोग करने के लिए कुछ पढ़ा जाए, और इस अवसर को सार्थक किया जाएl कुछ अच्छा पढ़ा जाए। अब सवाल उठा क्या पढ़ा जाय? अपने भारतीय भाषा में ही कुछ पढ़ा जाए । फिर मन में विचार आया भारतीय भाषा में पढ़ना है तो क्यों न सबसे अच्छा पढ़ा जाए । तो मन में संस्कृत के महाकवि कालिदास के अमर ग्रंथो को हिंदी में पढ़ने का विचार आया, और सोचा शुरुआत अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ से की जाए।

दुकाने तो सब बंद ही थी और इंटरनेट में अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ कहानी संक्षेप में तो मिली पर पूरा नाटक हिंदी में नहीं मिला । अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ संस्कृत में जरूर मिलीl थोड़ा बहुत संस्कृत का जानकार हूँ । स्कूल में 5-12 कक्षा तक संस्कृत पढ़ी है। हिंदी कक्षा 8 के बाद नहीं पढ़ी, क्योंकि नवी कक्षा में विकल्प था हिंदी या संस्कृत का और गुरुजनो और कुछ अग्रज छात्रों ने सलाह दी, संस्कृत ले लो नंबर ज्यादा आते हैं। मेरा 5-8 क्लास में स्कूल में भी अनुभव यही था। संस्कृत में नंबर हिंदी से ज्यादा आते थे, सो संस्कृत ले ली। बस यही से संस्कृत से लगाव हो गया। फिर संस्कृत के आचार्य भी बहुत बढ़िया या यु कहे सौभाग्य मिला उनसे पढ़ने का । जो थोड़ा बहुत संस्कृत से डर था, वो भी निकल गया और गणित के बाद सबसे ज्यादा नंबर संस्कृत में ही आये।

तो फिर इसी विचार से प्रेरित हो सबसे पहले मैंने उनकी अमंर रचना 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌' संस्कृत में पढ़नी शुरू कर दी.

मेरे विचार मे शाकुन्तल कालिदास के ही साहित्य नहीं अपितु विश्च साहित्य का देदीप्यमान काव्यरत्न हे

लॉक डाउन के दौरान एक दो मित्रो से लगभग रोज बात होती थी, तो सब पूछते हैं क्या करते हो दिन भर तो मैंने उन्हें बताया संस्कृत में महाकवि कालिदास का महाकाव्य अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ पढ़ रहा हूँ और क्या लिखते हैं महाकवि ।

उन्हें तो संस्कृत नहीं आती थी तो भाई बोले कुछ नमूने बता दो, तो उन्हें महाकवि कालिदास की रचना अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ में से महाकवि कालिदास की कमनीय कलेवर कोमल कविता कामिनी का संस्कृत से कुछ भाग का हिंदी में अनुवाद करके सुनाया तो बोले यार लिख कर मेल कर दो ये तो बहुत बढ़िया है।

उद्धरण के तौर पे .

जहां कालिदास शकुन्तला के सौन्दर्य-वर्णन पर उतरे हैं, वहां उन्होंने केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा शकुन्तला का रूप चित्रण करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है। पहले-पहले तो उन्होंने केवल इतना कहलवाया कि ‘यदि तपोवन के निवासियों में इतना रूप है, तो समझो कि वन-लताओं ने उद्यान की लताओं को मात कर दिया।’ फिर दुष्यन्त के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘इतनी सुन्दर कन्या को आश्रम के नियम-पालन में लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का पेड़ काटना।’ उसके बाद कालिदास कहते हैं कि ‘शकुन्तला का रूप ऐसा मनोहर है कि भले ही उसने मोटा वल्कल वस्त्र पहना हुआ है, फिर उससे भी उसका सौंदर्य कुछ घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। क्योंकि सुन्दर व्यक्ति को जो भी कुछ पहना दिया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है।’ उसके बाद राजा शकुन्तला की सुकुमार देह की तुलना हरी-भरी फूलों से लदी लता के साथ करते हैं, जिससे उस विलक्षण सौदर्य का स्वरूप पाठक की आंखों के सामने चित्रित-सा हो उठता है। इसके बाद उस सौंदर्य की अनुभूति को चरम सीमा पर पहुंचाने के लिए कालिदास एक भ्रमर को ले आए हैं; जो शकुन्तला के मुख को एक सुन्दर खिला हुआ फूल समझकर उसका रसपान करने के लिए उसके ऊपर मंडराने लगता है। इस प्रकार कालिदास ने शकुन्तला के सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अंलकारों का सहारा उतना नहीं लिया, जितना कि व्यंजनाशक्ति का; और यह व्यजना-शक्ति ही काव्य की जान मानी जाती है।

एक मित्र थोड़े ज्यादा कलाप्रेमी है सो बोले यार इसने मेरे कलाप्रेमी हृदय को कलोलपूर्ण कर दिया । थोड़ा और मिलेगा क्या ? सो उन्हें कुछ और भाग लिख कर भेज दिया । कुछ और कुछ और वो करते रहे और मैं भेजता रहा ।

फिर मन में एक और विचार आया अभिनज्ञानशाकुन्तल महाकाव्य का हिंदी में अनुवाद क्यों न नेट पर पाठको को उपलब्ध करवाया जाय. सभी इसका मजा क्यों ने ले।

पर मुझे ये भी मालूम है काम बहुत कठिन है लगभग 130 से ज्यादा पृष्ठ है और हजारो श्लोक हैं और फिर अनुवाद करना है सबसे बड़े महाकवि की सर्वश्रेठ माने जाने वाली कविताकोश का ।

मुझसे त्रुटियाँ जरूर होगी और दूर करने के लिए गुरुजनो का सहयोग माँगा है और उन्होंने यथासंभव दिया भी है । आप लोगो से भी मांग रहा हूँ, जहाँ भी लगे कोई त्रुटि है जरूर बताइएगा और सुधार भी बताइयेगा और इस महाकाव्य को अनुवादित करने की अपनी प्रयास और धृष्टता की क्षमा अभी से मांग रहा हूँ, कुछ त्रुटियाँ हिंदी टाइपिंग के कारण होंगी उन्हें सुधारने के लिए मेरी मदद करते हुए जरूर बताइयेगा .

एक से दो पेज प्रतिदिन अनुवाद करते हुए अपडेट दूंगा। कोशिस रहेगी सरल हिंदी लिखने की पर कुछ जगह पर थोड़ी कलिष्ट हिंदी आएगी, प्रयास रहेगा उसका सरल अनुवाद देने का आप भी यथासंभव सहयोग कीजियेगा, ख़ास तौर पर जिन्हे उनका सरल पर्यायवाची शब्द मालूम हो ।

मिलजुल कर प्रयास करते हैं उस अमर महाकाव्य को समझने का।

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ॐ श्रीगणेशायनमः

अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक


अनुक्रमाणिका 

मंगलाचरण , भूमिका - कथा का सार ........ PART 01

पात्र - परिचय ........ PART 02

मूलभाग

प्रथम अङ्क - हरिण का पीछा करते हुए सारथी साहित राजा दुष्यंत की 
ऋषियों से भेट होकर सखियों द्वारा शबुन्तला व राजा की परस्पर प्रीवि।   
PART 03 ONWARDS...

द्वितीय अङ्क

"तृतीय अङ्क

चतुर्थ अङ्क

पञ्चम अङ्क

षष्ठ अङ्क

सप्तम अङ्क


अष्टम अङ्क

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

 

ॐ श्रीगणेशायनमः

अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक

PART 01



भूमिका

अभिज्ञानशाकुन्तल का नामकरण


अभिनज्ञानशाकुन्तलम्‌ मे दुर्वासा के शाप से विस्मृत शकुन्तला का स्मरण नायक दुष्यन्त को मुद्रिका रूप अभिज्ञान (पहचान) के द्वारा होता हे या अभिज्ञान - पहचान के स्मरण से किया हुआ शकुन्तला का पाणिग्रहण, अतः इस नाटक का नाम अभिज्ञानशाकुन्तल हे ।


कथा का सार


एक बार राजा दुष्यन्त ने अपनी विशाल सेना के साथ हिरण का पीछा करते हुए वन में प्रवेश किया । उस वन में उन्हे अनेक प्रकार के वृक्षों ओंर यज्ञीय अग्नियों से युक्त एक आश्रम दिखलाई पड़ा । वह आश्रम कण्व ऋषि का था । राजा ने अपनी सेना को बाहर ही रोक दिया ओर मुनि के दर्शन हेतु अपने राजचिहों आदि को छोडकर तपोवन मे प्रवेश किया । उस समय महर्षिं कण्व की अनुपस्थिति मे शकुन्तला ने आकर उनका स्वागत किया । राजा उसके रूप लावण्य पर मुग्ध हो गया । राजा ने जब महर्षिं कण्व के बारे में पृछा तब शकुन्तला ने बतलाया कि उनके पिता बाहर गये हैँ ।

राजा ने शकुन्तला से उसके जन्मादि के बारे मे अपनी जिज्ञासा प्रकट की तथा साथ ही यह भी बतलाया कि वह उसके प्रति प्रेमासक्त हो गया है । जब शकुन्तला ने अपने को तपस्या निरत धर्मज्ञ मनीषी कण्व की पुत्री बतलाया तब राजा ने अपने मन के संशय को यह कह कर प्रकट किया कि भगवान्‌ कण्व ऊर्ध्वरेता एवं तपोनिष्ठ है अतः वह (शकुन्तला) उनकी पुत्री कैसे हो सकती हे ? इस पर उन्हें शकुंतला की वास्तविक उत्पत्ति की कथा जिसके अनुसार उसक। उत्पत्ति महातपस्वी विश्वामित्र तथा मेनका से सम्पर्क से हुई को उसकी सखी अनसूया सुनाती हे । जन्म देने के अनन्तर उसकी माता मेनका उसे मालिनी नदी के तट पर छोडकर इन्द्र के पासं लौट गयी । पक्षियों ने उसकी (नवजात शिशु की) रक्षा की ।

जब महर्षिं कण्व एकं दिन स्नान करने के लिये मालिनी-तर पर गये तो वे पक्षियों से आवृत उसे अपने साथ उठा लाये अर उसका पालन-पोषण करने लगे । क्योंकि वह निर्जन वन में पक्षियों से आवृत थी अतः उसका नाम शकुन्तला रख दिया गया । इस प्रकार पालन पोषण के नाते कण्व उसके धर्मपिता हँ ओर वह उनकी धर्मपुत्री ।

राजा शंकुन्तला को अपनी भार्या बनाने का प्रस्ताव करने लगा । पहले तो शकुन्तला ने पिता की अनुमति के विना उसके प्रस्ताव को मानने मे अपनी असमर्थता प्रकट की, उसकी सखी राजा से सपत्नियों के मध्य शकुन्तला को सम्मानित स्थान देने की बात कहकर आश्वासन लेती हे और शकुंतला विवाह के लिये तैयार हो गयी. दोनों का गान्धर्व विवाह हो गया । कुछ समय तक रहने के बाद्‌ राजा यह कहकर वापस चला गया कि वह शीघ्र ही उसे बुलाने के लिये अपनी चतुरङ्गिणी सेना भेजेगा ।

आश्रम में दुर्वासा ऋषि आते है और शकुंतला राजा दुष्यंत के खेलो में खोयी हुई होती है और दुर्वासा कुपित हो उसे श्राप देते हैं . जब महर्षिं कण्व-बाहर से आश्रम लौटे तो उन्हें अपने तपोबल से सारी घटना का पता चल गया । उन्होने दुष्यन्त एवं शकुन्तला के विवाह का अनुमोदन कर दिया ओर शकुन्तला को यह आशीर्वाद दिया कि उसे चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होगी । अधिक समय तक विवाहिता पुत्री को अपने साथ रखना उचित न समञ्च कर कण्व शकुन्तला को ऋषियों की देखरेख में राजा के पास भेज दिया । ऋषिगण शकुन्तला को वहाँ भेजकर वापस चले आये ।

दुर्वासा के शाप के कारण राजा शकुंतला को भूल जाता हैL जब शकुन्तला राजा के समक्ष उपस्थित हुई तो दुर्वासा द्वारा अभिशप्त होने के कारण राजा शकुन्तला को नहीं पहचान पाता और उसके साथ सम्पन्न अपने गान्धर्व विवाह को अस्वीकर कर देता है । वे शकुन्तला को अपने विवाह की कोई निशानी दिखाने को कहते है। शकुन्तला जब अपना हाथ उठा कर दिखाती है, तो उस मे राजा की दी हुई अँगूठी नहीं होती। इस से शकुन्तला को सब के सामने अत्याधिक शर्मिन्दा होना पड़ता है और वो राज्य सभा को छोड़ कर निराश होकर शकुन्तला वहां से महर्षिं मारीच के आश्रम मे चली जाती है ।

गर्भ पूर्ण होने पर शकुन्तला ने एक अति तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । छः वर्ष की स्वल्पायु में ही वह महाबलवान्‌ हो गया ओर वन के हिंसक पशुओं का भी दमन करने लगा। सभी का दमन करने के कारण महर्षि मारीच ने उसका नाम सर्वदमन रखा ।

अन्त मे मुद्रिका के कारण सुखद अंत होता है ओर शकुन्तला को महारानी तथा सर्वदमन को युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया और राजकुमार सर्वदमन का नाम भरत रखा गया ।

 

मंगलाचरण


गणेश जी को प्रणाम

या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
येद्वेकालंविधत: श्रुतिविषयगुणा: प्राणवन्त: या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त:
प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तुनुभिरवतु वरताभिरष्टाभिरीश:।।

शब्दार्थ

जिस सृष्टि को ब्रह्मा ने सबसे पहले बनाया, वह अग्नि जो विधि के साथ दी हुई हवन सामग्री ग्रहण करती है, वह होता जिसे यज्ञ करने का काम मिला है, वह चन्द्र और सूर्य जो दिन और रात का समय निर्धारित करते हैं, वह आकाश जिसका गुण शब्द हैं और जो संसार भर में रमा हुआ है, वह पृथ्वी जो सब बीजों को उत्पन्न करने वाली बताई जाती है, और वह वायु जिसके कारण सब जीव जी रहे हैं अर्थात् उस सृष्टि, अग्नि, होता, सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी और वायु इन आठ प्रत्यक्ष रूपों में जो भगवान शिव सबको दिखाई देते हैं, वे शिव आप लोगों का कल्याण करें


ये शकुतला नाटक संस्कृत और प्राकृत भाषा के बाहर सारे श्लोको और बहुत से छंदो का हिंदी अनुवाद लिए हुए हैं।
प्रभु से प्राथना है इसे निर्विघ्न और कुशलता पूर्वक पूरा करने के लिए सद्बुद्धि और सहायता करे, सबका मंगल हो .

 

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अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक

PART 02

पात्र -परिचय


पुरुष-पात्र


सूत्रधार
-- नारक का आरम्भ करने वाला प्रधान नट ।

दुष्यन्त--नाटक का नायक, हस्तिनापुर का राजा ।

सूत- दुष्यन्त का सारथि । “^

वैखानस--कण्व का शिष्य, तपस्वी ।

भद्रसेन- दुष्यन्त का सेनापति ।

विदूषक (माधव्य) - दुष्यन्त का अन्तरङ्ग मित्र ।

रैवतक (दौवारिक) - द्वारपाल ।

करभक-राजा के पास राजमाता का सन्देश पहुंचाने वाला एक दूत सेवक ।

कण्व-- आश्रम के कुलपति ।

शाङ्गरव ओर शारद्त--कण्व के शिष्य, तपस्वी ।

वैखानस, हारीत, गौतम ओर शिष्य- कण्व के शिष्य; तपस्वी ।

कच्चुको (वातायन)- रनिवास की देख-भाल करने वाला एकं वृद्धं ब्राह्यण ।

वैतालिक स्तुति-पाठक (चारण, भाट ) ।

श्याल नगर-रक्षाधिकारी, राजा का साला।

धीवर-- मछली पकड़ने वाला (मच्आ) ।

सूचक ओर जानुक- पुलिस के सिपाही ।

मातलि- इन्द्र का सारथि ।

बालक (सर्वदमन)
 --भरत, दुष्यन्त का पुत्र

मारीच-एक महर्षि, प्रजापति ।

गालव- मारीच का शिष्य |

सोमरात-- दुष्यन्त का पुरोहित ।



स्री - पात्र

नटी-- सूत्रधार कौ पत्नी ।

शकुन्तला-- नाटक कौ नायिका, दुष्यन्त की धर्मपत्नी, कण्व की पुत्री ।

अनसूया ओर प्रियवदा-- शकुन्तला की अत्यन्त प्रिय ओर अन्तरङ्ग साखियाँ । |

गौतमी--कण्व के आश्रम मे रहने वाली वृद्धा तापसी ।

प्रतीहारी (वेत्रवती) - द्रारपालिका ।

सानुमती-एक अप्सरा, मेनका की सखी ।

पर भृतिका ओर मधुरिका-उद्यान-पालिकाएे ।

चतुरिका- राजा की सेविका ।

तापसी- मारीच के आश्रम की एक तपस्विनी ।

अदिति (दाक्षायणी)- मारीच की पत्नी ।

यवनी-- राजा की एक सेविका ।

तापसी (सुत्रता)- मारीच के आश्रम की एक तपस्विनी ।


अन्य पात्र

(नाटक के इन पात्रो का केवल नामोल्तेख हुआ हे ।)

मधवा (इन्द्र) - देवताओं के राजा, दुष्यन्त के मित्र ।

जयन्त--इन्द्र का पुत्र ।

इन्द्राणी--इन्द्र को पत्नी । |

कौशिक (विश्वामित्र) --शकुन्तला के जनक (पिता ) ।

दुवसिा--एक ऋषि ।

मेनका-- शकुन्तला की जननी (माता) ।

 

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अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक

अपडेट 03

प्रथम अंक

प्रस्तावना


परदे के पीछे से आवाज आती है

शीघ्रता करो

फिर आशीर्बादपूर्वक मंगलाचरण कहा गया ।

मंगलाचरण पाठ की समाप्ति के बाद परदे के पीछे से नान्दी की आवाज आती है - नान्दी- नाटक की निर्विघ्न समाप्ति के लिये नाटक के प्रारम्भ नान्दी रूप मङ्गलाचरण किया जाता है


सूत्रधार - ( रंगमंच पर प्रवेश कर) नेपथ्य (रंग–मंच के पर्दे के पीछे की जगह) की ओर देखकर आर्ये (आर्या- सूत्रधार की पत्नी ), यदि नेपथ्य-कार्य (अभिनेताओं का वेशविन्यास धारण आदि कार्य) पूर्णं हो गया हो, तो इधर आओ ।

नटी (प्रवेश करते हुए) -- आर्यपुत्र, मै उपस्थित हूँ ।

सूत्रधार-- आर्या , आज ये सभा अधिक विद्वानों से भरी हुई हे। आज हमे कालिदास के द्वारा विरचित कथा-वस्तु वाले अभिज्ञानशाकुन्तल नामक नवीन नाटक के साथ उपस्थित होना हे । (अर्थात्‌ हमे अभिज्ञानशाकुन्तल नामक नये नाटक का, अभिनय करना हँ) अतः (नाटक के) प्रत्येक पात्र के अभिनय पर विशेष ध्यान देना आवश्यक हे । ( क्योकि उसकी छोटी सी भी त्रुटि विद्वान लोग पकड़ लेंगे और हमारा मजाक उड़ेगा )

नटी--आपके सुव्यवस्थित अभिनय निर्देशन के कारण कोई न्यूनता (कमी) नहीं रहेगी तो कोई क्यों हसेगा ।

सूत्रधार--आर्या , मेँ तुमसे यथार्थ (सच) कह रहा हूं । यद्यपि हम अभिनय-कला में कुशल है तथा प्रस्तुत नाटक के अभिनय की यथेष्ट तैयारी भी कर की है तथापि मेरा चित्त सफलता के विषय में संदेहयुक्त हे । जब तक विद्रज्जन उसकी अभिनयकला से सन्तुष्ट न हो जायं, तब तक मैं अपने अभिनय कला-कोौशल को सफल नहीं मानता । क्योकि अत्यधिक शिक्षित लोगों का मन भी सफलता मिलने तक अपने विषय मे अविश्वस्त ही रहता हे ।

नटी - आर्य! आप का कथन ठीक हे अब आप इसके बाद के हमे क्या करना है इस बारे में मे आदेश दीजिये ।

सूत्रधारः--इस सभा के सदस्यो के कानों को प्रसन्न करने के अतिरिक्त ओर क्या करना है ? इसलिये शीघ्र ही आरम्भ करते हुए इस ग्रीष्म ऋतु के विषय में ही गाओ । ग्रीष्म ऋतु के दिनों मे शीतल जल से स्नान, सुगन्धित-वायु, घनी छाया में नीद ओर सायंकाल की रमणीयता विशेष आनन्दप्रद होती है अर्थात परिणाम रमणीय होता है ।

नटी- जैसा आप कह रहे है वैसा ही करती हूं और गाना गाने लगती है । (जिसका अर्थ है )

सुन्दर युवतिया मतवाली (सौन्दर्य आदि के कारण मत्त) होने पर भी युवतिया भौंरों के द्वारा थोड़े-थोडे चूमे गये कोमल केसर-शिखा से युक्त शिरीष-पुष्पो को सावधानी के साथ तोड़कर उन्हे अपना कर्णाभूषण (कान के फूल ) बना रही है ।

सूत्रधार- आर्या तुमने बहुत अच्छा गाया । वाह अच्छे सुर और ताल के इस गीत को सुनने के द्वारा आकृष्ट अन्तः करण वाले दर्शक स्थिर (चित्रलिखित) लग रहे हैं । तो अब किस नाटक का अभिनय करके दर्शको की इस सभा को सन्तुष्ट (प्रसन्न) किया जाय ।

नटी--अरे पृज्य, आपके द्रारा पहले ही आदेश दिया गया था कि आज अभिज्ञानशाकुन्तल नामक अपूर्व अनुपम नाटक का अभिनय (प्रयोग) किया जाय ।

सूत्रधार- आर्या , तुमने ठीक स्मरण कराया है। इस समय मेँ यह भूल ही गया था । क्योकि--
आपके दवरा गाये गए इस मनेहरगीत से मैं वैसे ही में हार गया ठीक वैसे ही जैसे राजा दुष्यंत उस हिरण के पीछा करते हुए उसकी गति से हार गया
। 

 
ये कह कर दोनो सूत्रधार एवं नटी मञ्च से चले जाते है

यहां पर प्रस्तावना समाप्त होती हे


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टिप्पणी
(1) सूत्रधार--रङ्गशाला (नाटक के स्थान) की व्यवस्था करने वाले प्रधान नट को सूत्रधार कहा जाता है । इसके अधिकार में नाटक के सभी उपकरण होते है । वह रंगमंच का प्रबन्ध करता हे । साथ ही अभिनेताओं को निर्देश भी देता है । ( आप इसे डायरेक्टर प्रोडूसर भी कह सकते हैं )
(२) आर्ये (आर्या) - सूत्रधार की पत्नी
(३) आर्यपुत्र - पत्नी द्वारा पति को आर्यपुत्र कह कर सम्बोधित किया जाता है
(४) मेरे अभिनय-कौशल' की परीक्षा कर सकते है- इसमें अर्थान्तरन्यास और पर्यायोक्त अलङ्कार है
(५) परिणाम-रमणीया के द्वारा यह सूचित किया है कि नाटक का अन्त सुखद होगा
(६) शिरीष के फूल को कोमल माना जाता है। कालिदास ने लिखा है कि शिरीष के फूल केवल भौंरों के पैरों का दबाव सहन कर सकते हैं, पक्षियों के पैरों का नहीं।


(7) इस प्रस्तावना में निहित छुपा हुआ है - की जिस समय का नाटक खेला जा रहा है उस समय की परिस्थिति क्या है - ( नाटक के बैक ग्राउंड का परिदृश्य दर्शाने की कोशिस की गयी है ) ग्रीष्म का समय है , घने बन में शीतल हवा चल रही है , सुन्दर युवतिया कोमल केसर-शिखा से युक्त शिरीष-पुष्पो को सावधानी के साथ तोड़कर उन्हे अपना कर्णाभूषण (कनफूल) बना रही है और राजा दुष्यंत हिरन का पीछा कर रहा है .


shirish
शिरीष के फूल

 

इस प्रस्तावना में बैकग्राउंड को कितना छुपा कर डाला है कालिदास ने मुझे भी अब समझ में आया है जब ये विचार किया की कालिदास जैसे लेखक और रचनाकार ने इन प्रसंगो को क्यों लिखा है .. अद्भुत लेखन है कालिदास का - अद्भुत


जारी रहेगी

 

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अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक

अपडेट 03

प्रथम अंक


 
(इसके बाद्‌ हिरण का पीछा करते हये, बाण चढ़ा हुआ धनुष हाथ मे लिये हुये राजा
ओर सारथि रथ पर बैठे हुये प्रवेश करते है) ।
 
सूत (रथ का सारथि)  - राजा ओर हरिण को देखकर बोलता है महराज !, हिरण  की ओर निशाना साधे हुए  परत्यञ्चा पर बान  चढ़ाये   हुए  धनुष  युक्त आप (दुष्यन्त)  को देख कर ऐस अलग रहा है  मानो हिरण का पीछा करते हुए  मैं  साक्षात्‌ धनुर्धारी शिव को देख रहा हू ।
 
राजा-- सारथि, इस मृग के द्वारा हम लोग बहुतदूर खींच लाये गये है । यह मृग तो इस समय भी-
देखो, अपने पीछे दोडते हुए हमारे रथ पर पुनः-पुनः गर्दन मोडकर मनोहरता से दृष्टि डालता हुआ, बाण लगने के भय के कारण अपने अधिकांश शरीर के पिछले भाग को अगले भाग की ओर समेटे हुये श्रम के  कारण खुले हुये मुख से  आधे चरे हुये कुशो से मार्गं को व्याप्त करता हुआ, ऊची  छलांग और चौकड़ी  भरने के कारण  ये आकाश मे अधिक ओर  पृथ्वी पर कम ही दौड रहा हे ।
 
राजा आश्चर्य के साथ बोलता है  तो क्या कारण है कि इसके पीछे-पीछे दौड़ते हुए मेरे रथ होने पर भी मेरे  को यह हरिण कठिनाई से ही  दिखाई दे रहा है । .
 
सारथि- महाराज, भूमि ऊची-नीची थी, इसलिए मेने लगाम को खीच कर रथ का वेग
(चाल) धीमा कर दिया था । इससे यह मृग अधिक दूर हो गया है । अब बराबर भूमि होने से  अब इसे  आप  सरलता से प्राप्त कर लेंगे।
 
राजा-- तो लगाम दीली कर दो।
 
सारथि-- जो आप की आज्ञा । (रथ दौड़ा के ) महाराज , देखिये-देखिये--
लगाम को ढीली कर दिये जाने पर ये रथ के घोड़े,  मानों हिरण  के वेग को सहन न कर सकने के कारण शरीर के आगे के भाग को फेलाये हुये,  शिर पर विद्यमान कलंगी  चमर  के निश्चल अग्रभाग  से युक्त, निश्चेष्ट तथा ऊपर उठे हये कानों वाले, अपने  पैरो के द्वारा  उडायी गयी धूल से भी  घोड़े अतिक्रमण न किये जाने वाले होकर दौडे रहे हें ।
 
राजा-- सच है ।  इन घोड़ों ने सूर्यं तथा इंद्र  के घोड़ो को भी  अपनी गति से परास्त कर दिया है।
रथ के वेग के कारण जो वस्तु दूर से देखने मे छोटी दिखायी पडती हे , वह अकस्मात्‌ बड़ी जो जाती है।  जो वृक्षादि वस्तु वस्तुतः  पृथक्‌ प्रथक्‌ हे वह जुडी हई  प्रतीत होती हे । जो वस्तु स्वभावतः टेढ़ी हे, वह भी ओंखो के लिये सीधी-सी हो जाती हे।  क्षण भर के लिये भी कोई वस्तु न  तो मुञ्जसे दूर है ओर न  ही पास हे । सारथि,  देखो, अब मेँ इस मृग को मारता हू । (ऐसा  कह कर राजा बाण साधने का अभिनय करते हँ)।
 
(नेपथ्य मे आवाज आती  है ) हे राजन्‌ , यह आश्रम का मृग हे, इसे मत मारिये; मत मारिये ।
 
सारथि-(सुनकर ओर देखकर) हे महाराज  ! आप के बाण के मार्ग मे  और इस मृग के बीच मेँ तपस्वी उपस्थित हो गये हें और मन कर रहे हैं ।
 
राजा- (घबराहट के साथ) तो घोडे रोक लिये जाए  ।
 
सारथि--ठीक है । (रथ को रोक दिया) ।
 
 जारी रहेगी 
 
 
अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक

अपडेट 04

प्रथम अंक



(तदन्तर शिष्यों के साथ तपस्वी प्रवेश करता हे)

तपस्वी- (हाथ उठाकर) हे राजन्‌, यह आश्रम का मृग हे, कृपया इसे मत मारिये, मत मारिये।

इस कोमल मृग के शरीर पर रुई के ढेर पर अग्नि के समान, यह बाण न चलाइये, न चलाइये। हाय! कहाँ इस बेचारे हिरणो का अत्यन्त चञ्चल जीवन। (जिस प्रकार रुई के ढेर पर अग्नि छोडना उचित नहीं है उसी प्रकार हिरन पर बाण छोडना भी उचित नहीं हैं।) और कहाँ आप के तीक्ष्ण प्रहार करने वाले वज्र के समान कठोर बाण? बज्र जैसे बाण वाले के लिये हरिण जैसे कमजोर पशु को मारना सर्वथा शोभां नहीं देता हे।

इसलिये राजन्‌! धनुष पर अच्छी प्रकार चढ़ाये गये बाण को उतार लीजिये। हे राजन! ये शास्त्र दुखियो की रक्षा करने के लिए उपयोग कीजिये और निरपराध पर प्रहार करने के लिये नहीं।

राजा—यह बाण धनुष पर से उतार लिया है। (राजा कथनानुसार करते है अर्थात्‌ बाण को धनुष से उतार लेते हें ।)

तपस्वी-पुरुवंश के दीपक आपं के लिये यह उचित ही है।

जिसका पुरु के वंश में जन्म हुआ हे, उसका तपस्वी के कहने से बाण को धनुष से उतारना अत्यन्त उचित हे। आप इसी प्रकारं के गुणों से युक्त चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करें। -तपासवु ने आशीर्वाद दिया।

अन्य दोनों तपस्वी—अपने-अपने हाथों को उठाकर कहते है-अवश्य ही आप चक्रवती पुत्र प्राप्त करे।



राजा— (प्रणाम करते हुए) (आप ब्राह्मणों का वचन मेने स्वीकार कर लिया।

तपस्वी—हे राजन्‌, हम लोग । समिधा लाने के लिये निकले हये हे। यह सामने ही मालिनी नदी के तट पर कुलपति कण्ठ का आश्रम दिखायी पड़ रहा हे। यदि आपके अन्य कार्य में विलम्ब न हो तो आश्रम में जाकर अतिथिजनों के योग्य सत्कार को स्वीकार कीजिये, ओर उस जगह तपस्वियों को निर्विघ्न रमणीय यज्ञादि क्रियाओं को संपन्न करते देखकर, आप भी यह जान लेंगे "धनुष की डोरी की रगड़ से उत्पन्न चिह के द्वारा अलंकृत मेरी भुजा से कितने सत्पुरूषों की रक्षा होती हे"।

राजा—क्या कुलपति यहाँ आश्रम मेँ विद्यमान हे या नहीं ?

तपस्वी—अभी अपनी पुत्री शकुन्तला को अतिथि-सत्कार के लिये नियुक्त करके, शकुन्तला के प्रतिकूल भाग्य को शान्त करने के लिये सोमतीर्थं गये है।

राजा—अच्छा, फिर मैं उसी (कुलपति की पुत्री) का ही दर्शन करूगा। वही मेरी (महषिं कण्ठ के प्रति) भक्ति और श्रद्धा को जानकरं महर्षि कण्ठ को बता देगी।


जारी रहेगी
 
अभिज्ञान शाकुन्तला नाटक

अपडेट 05

प्रथम अंक

 


तपस्वी: अच्छा, महराज आप सिधारिये। हम भी अपने कार्य को जाते हैं। (तपस्वी अपने शिष्यो सहित निकल जाता हे।)

राजा: सारथी, रय को होँको। इस पविच आश्रम के दर्शन करके "हम अपना जन्म सफल करें।"

सारथि :-महाराज! जैसी आप की आज्ञा (वह पुनः रथ को आगे बढ़ाने का अभिनय करता हे।)

राजा: (चारों ओर देखक्रर) सारथि, अगर किसी ने बतलाया न होता " तो भी यहाँ हम जान लेते कि अब तपोवन समीप है और ये आश्रम की सीमा हे।

सारथि: महाराज ऐसें आप ने क्या चिह्न देखे?

राजा: क्या आप को ये चिह्न नहीं दिखाई देते हैं। देखो कही वृक्ष के नीचे तोतों के मुख से गिरा नीवार
 (जंगली धान) पड़ा है। कहीं पर हिंगोट के फलों को तोडने वाली चिकनी शिला रखी है। विश्वास उत्पन्न हो जाने के कारण मनुष्यों से हिरण के बच्चे ऐसे हिल रहे हैं कि हमारे रथ की ध्वनि की आहट से भी-भी नहीं चौंके (भय से इधर-उधर नहीं भाग रहे हँ) । जैसे अपने खेल कूद में मगन थे वैसे ही बने हुए हैं। तपस्वी लोग जो वल्कल (पेडो की छाल) पहनते हे जलाशयो में स्नान करने के पश्चात्‌ जब तपस्वी लोग कुटी की ओर लोटते हे तब उनके भीगे हुए वल्कलं से जल की वृंदे टपकती रहती है, जिससे मार्ग में पानी की कतारे बन जाया करती हे। इसलिए जलाशयो की ओर जाने वाले मार्ग वल्कल वस्त्रो के छोर से टपकने वाले जल की रेखा से चिहित दिखायी दे रहे है।

और देखो वृष्ठों की जड़े सिंचाई की नालियों के जल के प्रवाह से धुलकर कैसी चमकती हैं। यज्ञ में इस्तेमाल किये गए घी के धुंएँ से नये कोमल पत्तों की कान्ति कैसी धुंधली हो रही है। देखो उस तोड़े गए कुशो के अंकुर वाली उपवन की भूमि पर हिरणो के बच्चे कैसे धीरे-धीरे विचरण कर रहे हैँ।

सारथि : -आपने जो कुछ कहा है वह सब ठीक हे।

राजा :-थोड़ी दूर जाकर्‌, तपोवन के निवासियों को किसी प्रकार का विघ्न न होने पाये, इसलिये यहो ही रथ को रोक दो, मँ यही उतरता हूँ।

सारथि-मैने लगाम खीच ली हे। महारज आप उतर सकते हैं।

राजा: उतरकर और अपने भेष को देखकर बोले सारथि तपस्वियों के आश्रम में वेष से ही जाना चाहिए। इसलिये तुम मेरे राजचिहों और धनुष बाण को सम्भालो। (सारथि को आभूषण ओर धनुष उतार कर देते हे और सारथी ने उन्हें ले लिया) और जब तक में आश्रम वासियों के दर्शन करके लौट आऊँ तव तक तुम घोड़ों की स्नान करा दो।

सारथि: जो आज्ञा! कह कर वाहर गया ।

राजा: (चारों ओर घूम फिरकर देखकर) यह आश्रम का प्रवेश द्वार है। अच्छा, अब मैं प्रवेश करता
हूँ। (प्रवेश कर शकुन को सूचित करते हये) -
यह आश्रम का स्थान शान्त है ओर मेरी दाहिनी भुजा फड़क रही हे। आज यहाँ दाहिनी भुजा क्यों फड़क रही है (ठहरकर और कुछ सोचकर यह तो तपोवन है। यहाँ दाहिनी भुजा के फड़कने के अच्छे सगुन का क्या फल प्राप्त होना है। कुछ आश्चर्य भी नहीं है। भावी घटनाओं के मार्ग सभी स्थानों पर सुलभ हो जाते हँ। होनहार कही नहीं रुकती है।

टिपण्णी
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1. नीवार: जंगली धान

2. वृक्षों की कोटरो में तोतों के बच्चे विद्यमान हैँ। तोते बार-बार आकर अपने बच्चों को नीवार (जंगली धान) खिलाते हें। बच्चों को खिलाते समय कुछ न कुछ नीवार ज़मीन पर गिर पड़ता है। इस प्रकार वृक्षों के नीचे गिरा हआ नीवार दिखलायी दे रहा है।

3. हिंगोट एक जंगली वृक्ष हे। तपस्वी लोग इसके फल से तेल निकाल कर अपने उपयोग में लाते हें। इन फलों को तोडने के कारण पत्थर भी अत्यन्त चिकने हो गये है।

4.वल्कल: पेडो की छाल

5. यहाँ राजा के द्वारा अनेक प्रमाणो के आधार पर आश्रम का अनुमान किया गया है या कवि ने आश्रम के लक्ष्णों को बताया है l

6. दाहिनी भुजा का फड़कना एक शुभ फल मिलने का संकेत माना जाता है j

जारी रहेगी